जलवायु परिवर्तन ने दुनिया के उन क्षेत्रों में गर्भावस्था और बच्चे पैदा करना और भी ज़्यादा मुश्किल बना दिया है जो अत्यधिक गर्मी के प्रति सबसे ज़्यादा संवेदनशील हैं। मुंबई में, 2022 की गर्मियों में झुलसा देने वाली गर्मी, दिन के दौरान 38 डिग्री सेल्सियस (104 F) तक पहुँचने वाले तापमान ने, 23 वर्षीय माधुरी बोलके की नींद इतनी कम कर दी कि उन्होंने वास्तव में गर्भपात कराने के बारे में सोचा।
उन्होंने याद करते हुए कहा, “पंखे को सबसे ज़्यादा तेज़ गति पर चलाने के बाद भी, मेरे लिए सो पाना मुश्किल था।” अक्सर, मैं आधी रात को जाग जाती थी।” आख़िरकार, उन्होंने मुंबई से लगभग 500 किलोमीटर दूर 701 लोगों वाले अपने गाँव बोलकेवाडी में सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता भारती कांबले से बात की। कांबले ने गाँव लौटने की सलाह दी, जो आमतौर पर मुंबई की तुलना में ठंडा और कम नमी वाला क्षेत्र है। फरवरी के तीसरे सप्ताह में, बोलके राहत की तलाश में गाँव लौट आईं, लेकिन गर्मी की लहर वहाँ भी उनके पीछे-पीछे आ गई।
अगले दो हफ्तों में, बोलकेवाडी में बहुत ज़्यादा गर्मी पड़ी और बोलके का हीमोग्लोबिन – उनके खून में मौजूद प्रोटीन जो ऑक्सीजन को शरीर में फैलाता है – गिरकर सिर्फ 6 ग्राम प्रति डेसीलिटर रह गया, जो कि प्रजनन आयु की महिलाओं के लिए सामान्य तौर पर रहने वाले 12-16 से काफी कम था। गर्भावस्था के दौरान कम हीमोग्लोबिन गर्भवती महिला के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा सकता है, और इससे समय से पहले प्रसव या कम वज़न वाले बच्चे के जन्म होने का जोखिम बढ़ जाता है।
जैसे-जैसे गर्मी से बोलके की नींद कम होती गई, उन्हें तेज़ सिरदर्द होने लगा और उन्हें खाना पचाने में भी परेशानी होने लगी। डॉक्टर के पास कई बार जाने के बाद, नींद की कमी – कम हीमोग्लोबिन से होने वाले एक खतरे का कारक – को दोषी माना गया।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के डेटा साइंस इंस्टीट्यूट के पोस्टडॉक्टरल शोध वैज्ञानिक केल्टन माइनर, जो बोलके के इलाज में शामिल नहीं थे, ने कहा, “जैसे ही रात का तापमान गर्म होता है, लोगों को सोने और आराम की स्थिति में आने में लंबा समय लगने लगता है।” माइनर वन अर्थ पत्रिका में छपे 2022 के एक अध्ययन के प्रमुख लेखक हैं, जिसमें पाया गया कि कोलंबिया, सऊदी अरब और भारत जैसे सबसे गर्म क्षेत्रों में रहने वाले लोग ने ठंडे क्षेत्रों वाले लोगों की तुलना में रात के तापमान में प्रति डिग्री वृद्धि से दोगुने से ज़्यादा नींद खोई। अन्य अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि गर्भावस्था के दौरान नींद की कमी से समय से पहले जन्म और अन्य समस्याओं जैसे प्रीक्लेम्पसिया, जन्म के समय कम वज़न, ऑपरेशन से जन्म और गर्भकालीन मधुमेह का खतरा बढ़ सकता है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ गायनोकोलॉजी एंड ऑब्स्टेट्रिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पाया कि 36 गर्भकालीन सप्ताहों में अपर्याप्त नींद से प्रसवोत्तर अवसाद यानी डिप्रेशन का एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा हुआ।
जैसे-जैसे जलवायु गर्म हो रही है इससे लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं। केवल भारत में ही 37.8 करोड़ से ज़्यादा महिलाएँ प्रसव उम्र की हैं। और जलवायु परिवर्तन के तेज़ होने के कारण गर्मी ही केवल चरम मौसम का ज़्यादा बुरा होता एकमात्र रूप नहीं है: कई जगहों पर बाढ़ की स्थिति भी बदतर हो रही है, जिससे आपदा के दौरान बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं के लिए प्रसव पीड़ा और जन्म देना और भी मुश्किल हो रहा है।
वन अर्थ अध्ययन में पाया गया कि “लोगों ने वास्तव में गर्मी के दिनों के दौरान जल्दी जागना शुरू कर दिया, जो यह इंगित करता है कि गर्मी ना केवल लोगों को देर से आने वाली नींद का कारण बनती है बल्कि नींद की पूर्ण अवधि को भी कम कर देती है,” माइनर ने बताया। “इससे लोगों को रात में कम नींद आने की संभावना बढ़ जाती है – जो प्रतिकूल मानसिक और हृदय के स्वास्थ्य के लिए एक खतरा है।”
माइनर के पेपर ने वैश्विक स्तर पर 68 देशों के 47,000 से ज़्यादा व्यक्तियों के 70 लाख से ज़्यादा नींद के रिकॉर्डों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने इस बात पर ध्यान दिया कि क्या लोगों ने गर्मी के मौसम के दौरान एक सप्ताह के अंदर अपनी खोई हुई नींद की भरपाई की, लेकिन इसके बजाय उन्होंने पाया कि लोग इस सात दिनों की अवधि में सामान्य से कम सोए।
उन्होंने पाया कि गर्मी की आदत डलने से मदद नहीं मिली: “जब हमने अतिरिक्त रूप से यह देखा कि क्या लोग गर्मियों के महीनों में खुद को अनुकूलित कर पाएँगे, तो हमें आश्चर्य हुआ कि गर्मियों के अंत में लोगों की नींद थोड़ी और कम हो गई, भले ही अब गर्मी संज्ञानात्मक रूप से ज़्यादा परिचित थी,” माइनर ने समझाया।
एक अमेरिकी गैर-लाभकारी संस्था नेशनल स्लीप फाउंडेशन के अनुसार, एक गर्भवती महिला को रोजाना सात से नौ घंटे की नींद की आवश्यकता होती है। फिर भी 2022 के गर्मी के मौसम के दौरान, बोलके ने आम तौर पर छह घंटे से भी कम की नींद ली।
सात महीने बाद ही उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई और एक निजी अस्पताल के डॉक्टर ने चेतावनी दी कि वह या तो बोलके को बचा सकते हैं या बच्चे को। सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता, कांबले इसके बजाय उन्हें एक सार्वजनिक अस्पताल ले गईं, जहाँ डॉक्टर माँ और बच्चे दोनों को ही बचाने में सफल रहे।
सर्जरी बहुत कठिन थी क्योंकि यह प्रसव के समय से पहले की डिलीवरी थी। किसी तरह, वह बच गई और वह 15 दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही।” कांबले ने कहा।
“उनके द्वारा इतनी सारी समस्याओं का सामना करने का एक प्रमुख कारण यह था कि उन्हें गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त आराम और नींद नहीं मिली थी,” कांबले के बताया, जो कहती हैं कि उन्होंने 2009 से 60 से अधिक प्रसवों को संभाला है, लेकिन ऐसा जटिल मामला कभी नहीं देखा। “अब आगे बढ़ती गर्मी के कारण यह और भी जटिल हो जाएगा।”
बोलके का बच्चा भी कम वज़न का था और उसे टीबी, पोलियो और हेपेटाइटिस बी के टीके तुरंत नहीं लग पाए, जिससे नवजात शिशु इन बीमारियों के प्रति संवेदनशील था। अगले 15 महीनों में बच्चा स्वस्थ हो गया।
गर्भवती महिलाओं द्वारा नींद खोने का जलवायु परिवर्तन का एक और बड़ा संकट: अत्यधिक बाढ़। अगस्त 2019 में अपने बच्चे के जन्म से दो दिन पहले, महाराष्ट्र के गणेशवाड़ी गाँव की 26 वर्षीय वृषाली कांबले को आने वाली बाढ़ की चेतावनी दी गई थी।
उन्होंने बताया, “मैं तुरंत, सरकारी स्कूल में चली गई, जिसे अस्थायी निकासी केंद्र में बदल दिया गया था।” कुछ ही घंटों में, उनका घर बाढ़ के पानी में डूब गया जिसमें उनके घर का सारा सामान बह गया और अगले 15 दिनों तक पानी कम नहीं हुआ।
उन्होंने याद करते हुए कहा, “मैं उन दो दिनों के दौरान बिल्कुल भी सो नहीं पाई थी।” पर्याप्त निकासी केंद्र नहीं थे, इसलिए कम से कम 30 लोगों को 10-बाय-10-फुट के स्कूल के कमरे में भर दिया गया, जिसका प्लास्टर उखड़ रहा था और दीवारों में दरारे थीं।
जब एक सुबह उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी तो सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता छाया कांबले ने तुरंत एक एम्बुलेंस की व्यवस्था की। छाया कांबले, जिनका भारती कांबले से कोई रिश्ता नहीं हैं, उन्होंने ने बताया कि “हम राज्य की सीमा पार करके उसे पड़ोसी राज्य कर्नाटक ले गए, क्योंकि बाढ़ के कारण यहाँ सभी अस्पताल पहुँच से बाहर थे।”
उन्हें कर्नाटक के कागवाड गाँव पहुँचने में एक घंटे का समय लगा, जहाँ वृषाली ने वीरा नाम की एक लड़की को जन्म दिया। बच्ची का वज़न कम था और बाद में लीवर की बीमारी से उसकी मृत्यु हो गई जिसका गर्भावस्था के दौरान उसकी माँ द्वारा अनुभव किए गए तनाव से कोई संबंध नहीं था।
रचनात्मक समाधानों की आवश्यकता
छाया कांबले, जिनके पास प्रसव में महिलाओं की मदद करने का 14 वर्षों से ज़्यादा का अनुभव है, उन्होंने कहा कि पिछले चार वर्षों में, उनके गाँव की लगभग हर गर्भवती महिला को नींद ना आने की समस्या का सामना करना पड़ा है। उन्होंने कहा, “ऐसा बाढ़ के डर, स्थानीय जलवायु पैटर्न में तेज़ी से हो रहे बदलाव जिसके साथ वे खुद को ढाल नहीं पाती और रात के बढ़ते तापमान के कारण है।”
उन्हें सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की है कि लोगों ने इस गंभीर संकट को कैसे सामान्य मान लिया है। “अगर गर्भवती महिला को पर्याप्त नींद नहीं मिलती है तो उनके परिवार के ज़्यादातर सदस्य इसे सामान्य बात कहते हैं।” अब, वह सभी गर्भवती महिलाओं से पहला सवाल यही पूछती हैं कि क्या उन्हें पर्याप्त नींद मिल रही है। कम से कम इससे समस्या के बारे में जागरूकता तो पैदा होती है, भले ही इससे समस्या का समाधान ना हो।
बोलके की मदद करने के उनके अनुभव ने भारती कांबले को और भी सतर्क बना दिया है। उन्होंने अपने गाँव की गर्भवती महिलाओं का एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया है, जहाँ वे बढ़ते तापमान के खतरों के बारे में जानकारी डालती हैं। वे अपने गाँव की हर महिला और परिवार को बढ़ते तापमान के खतरों के बारे में जागरूक करने के लिए घर-घर भी जाती हैं। वे और छाया कांबले दोनों ही अब अपने दिन की शुरुआत तापमान की निगरानी और पूर्वानुमानों की जाँच करके करती हैं।
ओक्लाहोमा में लॉरेट इंस्टीट्यूट फॉर ब्रेन रिसर्च में पर्यावरण मानसिक स्वास्थ्य के मुख्य वैज्ञानिक और वन अर्थ में प्रकाशित लेख के लेखकों में से एक निक ओब्राडोविच ने कहा कि गर्भवती महिलाओं को सोने में मदद करने के लिए पंखे, कूलिंग शॉवर और गीले कपड़े का इस्तेमाल किया जा सकता है, साथ ही अतिरिक्त बिस्तर को भी हटाया जा सकता है। ये उपाय भारत में महत्वपूर्ण हैं, जहाँ केवल 13% घरों में एयर कंडीशनर हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह और भी कम है।
उन्होंने कहा, “अंततः नीति बनाने वालों को कमज़ोर व्यक्तियों, विशेष रूप से बुजुर्गों के लिए कूलिंग केंद्रों को संसाधन उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिए, तथा जहाँ संभव हो, वहाँ एयर कंडीशनिंग के उपयोग को सक्षम करना चाहिए, साथ ही इसे बिजली देने के लिए ऊर्जा के कम कार्बन वाले रूपों को प्राथमिकता भी देनी चाहिए।”
माइनर, उनके सह-लेखक, ने सुझाव दिया कि छत बनाने की सामग्री बदलने से इमारतों को ठंडा करने में मदद मिल सकती है। “शोधकर्ताओं और इंजीनियरों ने दिखाया है कि ठंडी परावर्तक छत बनाने से ना केवल छत पर बल्कि नीचे के कमरों के अंदर भी तापमान कम करने में मदद मिल सकती है।”
भारत के कई हिस्सों में तापमान फिर से बढ़ने लगा है, इसलिए बोलके मुंबई की गर्मी से बचने के लिए फिर से अपने गाँव लौट जाएँगी।
“बचपन से ही गर्मियाँ छुट्टियों का समय रही हैं, लेकिन अब गर्मियों में बाहर निकलना भी खतरनाक हो गया है। मुझे नहीं पता था कि बढ़ता तापमान मेरी जिंदगी को पूरी तरह बदल देगा,” बोलके ने कहा। उन्हें इस साल और भी ज़्यादा नींद कम होने का डर है।